खोई हुई मासूमियत
खुशीयों के आलिशान महल में
दर्द भरे आभूषणों का घना बादल छाया है
ख्वाब और सचाई के दूरियों को समेटने में
मासूमियत कब खो जाए कोई जाने ना
जिंदगी की कही अनकही पहुलुओं में से
एक और पहलू कडवे सच का भी है
जो खुद के नज़र में ना आए
पर नसीब जरूर उस मोड पर ले जाए
दर दर की ठोकरों से भी बत्तर
सिर्फ सन्नाटों से घेरी दुनिया है
जिस्की आहट हर कोई सुनता है
पर लौटने का रास्ता किसीको पता नहीं
चंद दीनों की बात है
जब सपनों से सजी दुनिया
शीशों की तरह टूट कर चूर हो जाए
और परियों की वो शहज़ादी
इस निरदय और निर्मोही दुनिया का
एक और मजबूर मोहरा बनके रह जाए
By Uma Chandrasekar
Technically, this was my first ever written poem. Even before I could write poems in English or Tamil, I wrote one in Hindi for a documentary about street children suffering in poverty. The director of the documentary liked it but chose not influence his vision with my artistic thoughts.
Wow! This is so nice even after being the first ever poem of yours.