
ये आँखें तुम्हारी ....
ये आंखें तुम्हारी ,
न जाने क्या-क्या कह रही है ;
जब कि होंटों ने छुपाना चाहा शायद ;
कई राज़ है !
जो दर्द शब्दों में न हो सका बयान ;
आँखों ने खोला है शायद ;
आज, उनका राज़ है ।
की आंखों में छुपा वो राज़ शायद ,
आज मेरी आँखों ने पढ़ लिया है !
इस बात से अब तुम , उनसे ;
रुस्वा मत हो जाना ।
की आँखों की यह,
कोई लापरवाही थोड़ी न है ;
की गलती तो यह दिल की भी है न ,
जो अपने ही राज़ बाटने को ,
बस किसी दूसरे दिल को ढूंढता है ।
की आखिर यह भी कब तक ,
अनकहे अल्फ़ाज़ों,
ज़ाहिर न हुए जज़्बातों का ,
वज़न उठाकर चलता रहेगा ।
कहीं रुकने , ठहरने की इच्छा को ;
मन में दबाए , बस युहीं चलता रहेगा ।
की इस मुसाफ़िर को भी तो आखिर ,
किसी हमराही से मिलने की इच्छा ,
होती ही है ना !
किस्से बनाने, बताने की आशा - अभिलाशा ,
इसे भी तो आखिर ,
होती ही है ना ।
की यह भी तो आखिर ,
कभी सुनने ,
कभी सुनाने की आशा - अभिलाशा ,
छुपाये चलता रहता है ;
रुकने , ठहरने की इच्छा को ,
नजाने क्यों , बेफिजूल समझ ;
बस चलता ही रहता है ।
की आज अगर इसकी यह ,
दबी इच्छाइयें, आशा - अभिलाशायें ,
व्यक्त हो भी गई ;
तो इसे गलत, समझ मत लेना ।
पर्दा अगर गिर भी गया ,
तो इसे बेशर्म , कमज़ोर मत समझ लेना ।
की इसे भी आखिर खुदकी करने की ,
थोड़ी सी आज़ादी तो होनी ही चाहिए ;
दर्द को सीने में दबाकर आखिर ,
क्यों हमें बस युहीं ,
चलते ही रहना चाहिए ।
सोचो ज़रा !
क्या यह हिस्सा ,
इन सब के खातिर बना था ??
या ,यह हिस्सा ,
प्यार समेट कर चलने के लिए ,
शायद बना था ;
बेधड़क , बिंदास, ज़िंदा रहने के लिए
शायद बना था ।
तो क्यों न चलो इसे भी इस बार ,
थोड़ा हल्का होने की आज़ादी ,
हम दे देते है ;
जो दर्द आँखों ने किया है बयान ,
उसे आपस में बाट ,
ज़रा हम लेते हैं !
यह पल जो शायद ,
किस्मत से मिला है हमें ,
उसे मोती समझ ,
यादों की माला में, पिरोह हम लेते है ।
यादों की, माला में, पिरोह हम लेते है ।।
~~~~ FreelancerPoet
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